Monday, September 13, 2010

संगर्श्पूर्ण बचपन

वो  नन्हे - नन्हे  पंजे  थे,
वो  सरेलैक  का  स्वाद,
वो  छोटे - छोटे  खिलोने  थे,
जो थी  बचपन  की  याद.

स्कूल   जाना  हमने  शरू  किया,
आ  गया  तन  में  एक  नया  जोश,
पढने  लिखने  में  मान  इतना  खो  गया,
न  रहा  खाने  पीने  का  होश.
 .
बैग  उठाते  उठाते  झुक  गए  हमारे  कंधे,
अब  तो  इतना  पढना  परता  है,
की  प्रोजेक्ट  बनाते - बनाते  ही,
बीत  जाते  है  हमारे  सन्डे.

हर  रोज़  एक  नया  टेस्ट,
हर  रोज़  एक  नयी  प्रोजेक्ट,
शिक्षक  को  देने  होते  है  सिर्फ  एक,
पर  हमे  पुरे  करने  होते  है  पांचो सब्जेक्ट.

क्या  बीतती  है  हम  पर  कोई  हमसे  तो  पूछे,
दिन - रात  एक  कर  के  हम  प्रोजेक्ट  करते  है  ऐसे,
जैसे  पानी  की  तलाश  में  रेगिस्तान  में  घूम  रहे
हो  हम  बच्चे.
 .
इतने  तनाव  को  कैसे  सहेंगे  हम  बचे,
इसे  कम  करने  के  बारे  में  कोई  तो  सोचे.
और  कितना  करोगे  आप  हमे  परेशां,
ज़रा  जी  लेने  दो  हमे  अपने  बचपन  का जहाँ
बस  यही  है  हमारा  अरमान.